Wednesday, December 28, 2011

घर

 

पता नहीं

उस स्त्री की आंखों में

उगा था पहली बार

वह सपने की तरह

जैसे थूहर पर

उगती है बरू की घास

बरसात के शुरूआती दिनों म़े

या उस मर्द के हाथों में

छाले की तरह उग कर

चला आया था वहां

पर वह मकान आया जरूर

ठीक उस जगह

घर बनने के लिए

जहां आदमी के

उग सकने की संभावनाएं

उतनी ही थी

जितनी कि सपनों की़

जल पृथ्वी वायु और आकाश से

बना वह घर

बीच में आग के लिए स्थान

रखता हुआ

पता नही कैसी गंध थी

उस मिटृी में

कि उसे आकार लेना था

प्राचीन सपने का

कैसी महकी हुई थी हवा

कि उसे आना था

तमाम दीवारें तोड़ कर

दीवारों के बीच़

खिड़कियों को छूते हुए

पहुंचना था आंगन तक़

वह स्त्री आसमान उलीच लेती

अगर उसके लिए

एक छत न तानता उसका मर्द़

वह स्त्री डूबकर बह गइ्र्र होती

दर्द की उस लहकती हुई नदी में

अगर उस दीवार में

पूर्व की ओर न खुलती

एक खिड़की़

वह मर्द इस तरह इत्मीनान से

न गुड़गुड़ा रहा होता हुक्का

दीवार से पीठ सटाकर

अगर उस दीवार के पीछे न होती

उस औरत की महक़

वह निकल गया होता

बारिष में भीगता हुआ

किसी बीहड़ की ओैर

अगर उसे ढक न लेती वह स्त्री

एक छत की तरह़

डसने ढूंढ ली होती

कोई प्राचीन कन्दरा

और निकल गया होता

रामनामी ओढ़

मोक्ष की तलाश में

अगर उस स्त्री ने

आंगन में न उतार दिये होते

खेलने के लिए बच्च़े

हम सब खेलते हैं

घर 2 का खेल

हम सब की आंखों में

ईंट दर ईंट उगता है सपना

कहीं से भी आ जाती है एक स्त्री

कहीं से भी आ जाता है एक मर्द

हम सब खेलते हैं

दु:ख सुख के साथ

लुका छिपी का खेल

बच्चों के बहाने

पूरा संसार रख देते हैं

दीवारों के बीच

और हम सब

इत्मीनान से रहते हैं वहां

जो जीवन में

तमाम दीवारें तोड़ने का

सपना लेकर निकले थे

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