Wednesday, December 28, 2011

अर्जियां

 

एक बड़ा अफसर है

डस बड़े से दफ्तर में

जहॉं बहुत सारे लोग

ताँता लगा देते हैं हर रोज़

अपनी अर्जियों के साथ

अर्जियों में भरपूर कोशिश से

लिखवाते हैं

अपनी दु:खभरी कहानियाँ

अपनी सारी व्यग्रता, सारा असंतोष

प्रार्थनाओं से भरा मन

उंडेल देते हैं अर्जियों में

देवता के यहां

मन्नत मांग कर आते हैं वे

अर्जियां देने से पहले

इस उम्मीद के साथ

कि पढ़ी जाएँगी वे सारी

और पढ़ी गई

तो यकीनन निजात पाएँगे

वे अपने दु:ख स़े

रूठी हुई खुषियों को पतियाकर

लौटा ही लाएंगे किसी तरह

वे समझते हैं

भाग्य बदलने के लिए जरूरी है

लिखी जाएं अर्जियां

अर्जियों से या

अर्जियों की ही तरह

लिखा जाता है भाग्य

बड़ा अफसर

इत्मीनान से पढ़ता हैं सारी अर्जियाँ

डतनी देर

एक ओर हाथ बाँधे खड़ा रहता है

सारा आक्रोश सारा असंतोष

समर्पण और जिज्ञासा की मुद्रा में

उतनी देर में जिमणू चपरासी

ढो चुका होता है

कितनी ही फाईलें

बराबर बुड़बुड़ाता हुआ

बड़ा अफसर

डसी बड़े मेज़ पर से

जारी करता है आदेष

कि दूर किये जाएँ सारे दु:ख़

मुश्किल यह है

कि उनके जीवन में

होता है जितना दु:ख

उतना लिख नहीं पाता है अर्जीनवीस

जितना लिख पाता है अर्जीनवीस

उतना पढ़ नहीं पाता है अफसर!

डसके बड़े से मेज़ पर

तरतीबदार रखी फाईलों से

थोड़ा छुपकर

घात लगाए

बैठा रहता है चालाक समय

और हर कार्रवाई पर बराबर

जमाए रखता है गिद्घदृष्टि

कि कब निकले फाईल

ओर कब झोंकूँ उसकी ऑंखों में धूल

यही है जो नहीं पढ़ने देता

अफसर को सारा दु:ख

इतने ताकतवर चश्मे के बावजूद

कि तब तक अर्जियों में

सपना डाल कर निकले लोग

जमा हो जाते हैं

चाय वाले रोशनू की रेहड़ी के गिर्द

अपनी अपनी अर्जियों की

ईबारतें दोहराते हुए मन ही मऩ

इन्हें खुश देख

रोशनू के हाथ तेज़ 2 चलते हैं

चाय के खौलते पानी की पतीली

और चीनी वाले डिब्बे के बीच़

अफसर पर एक निरापद

चुटकुला कसते हुए

उबलती चायपत्ती की महक से सराबोर

एक ठहाके के साथ

छिटका कर दूर गिरा देते है सारा तनाव

झटके के साथ लौट आते हैं

सहज मुद्रा में

अदालत में मनमर्र्जी की तारीख मिल जाने पर

रहते हैं उमंग में।

जैसे न्याय तक पहुँचाने वाले रास्ते का

मिल गया हो सुराग़

उन लोगों की जेब में हैं

कुछ गिने चुने षब्द

एक निश्छल दिल

थोड़े से पैसे

और नेक इरादे की खनक

इन से ही चलाएँगे

घर गृहस्थी और जीवऩ

जो जीवन भर उलीचते रहेंगे रेत

कि भाग्य की तरह निकलेगा पानी

मैंने कब कहा

कि इसके बाद नहीं लिखेंगे वे अर्जियाँ

इसी तरह लिखी जाएंगी वे

इसी तरह पढ़ी जाएंगी

इसी तरह बनता जाएगा

दु:ख का लम्बा इतिहास़

घर

 

पता नहीं

उस स्त्री की आंखों में

उगा था पहली बार

वह सपने की तरह

जैसे थूहर पर

उगती है बरू की घास

बरसात के शुरूआती दिनों म़े

या उस मर्द के हाथों में

छाले की तरह उग कर

चला आया था वहां

पर वह मकान आया जरूर

ठीक उस जगह

घर बनने के लिए

जहां आदमी के

उग सकने की संभावनाएं

उतनी ही थी

जितनी कि सपनों की़

जल पृथ्वी वायु और आकाश से

बना वह घर

बीच में आग के लिए स्थान

रखता हुआ

पता नही कैसी गंध थी

उस मिटृी में

कि उसे आकार लेना था

प्राचीन सपने का

कैसी महकी हुई थी हवा

कि उसे आना था

तमाम दीवारें तोड़ कर

दीवारों के बीच़

खिड़कियों को छूते हुए

पहुंचना था आंगन तक़

वह स्त्री आसमान उलीच लेती

अगर उसके लिए

एक छत न तानता उसका मर्द़

वह स्त्री डूबकर बह गइ्र्र होती

दर्द की उस लहकती हुई नदी में

अगर उस दीवार में

पूर्व की ओर न खुलती

एक खिड़की़

वह मर्द इस तरह इत्मीनान से

न गुड़गुड़ा रहा होता हुक्का

दीवार से पीठ सटाकर

अगर उस दीवार के पीछे न होती

उस औरत की महक़

वह निकल गया होता

बारिष में भीगता हुआ

किसी बीहड़ की ओैर

अगर उसे ढक न लेती वह स्त्री

एक छत की तरह़

डसने ढूंढ ली होती

कोई प्राचीन कन्दरा

और निकल गया होता

रामनामी ओढ़

मोक्ष की तलाश में

अगर उस स्त्री ने

आंगन में न उतार दिये होते

खेलने के लिए बच्च़े

हम सब खेलते हैं

घर 2 का खेल

हम सब की आंखों में

ईंट दर ईंट उगता है सपना

कहीं से भी आ जाती है एक स्त्री

कहीं से भी आ जाता है एक मर्द

हम सब खेलते हैं

दु:ख सुख के साथ

लुका छिपी का खेल

बच्चों के बहाने

पूरा संसार रख देते हैं

दीवारों के बीच

और हम सब

इत्मीनान से रहते हैं वहां

जो जीवन में

तमाम दीवारें तोड़ने का

सपना लेकर निकले थे

कल के लिए

 

एक अकेला आदमी

धूप से डरी हुई भीड़ में से उठा

और धूप को ललकारते हुए

रोप दिया उसने एक पेड़

धरती के बीचोंबीच

जहां हवा गा रही थी

एक उदास धुन

इससे बाकी पेड़

जो सहमे सहमे से थे

सुानहरे भविष्य के स्वप्न बुनने लगे

कटे हुए जंगलों पर छा गई

हरियाली की संभावनाएं

धरती ने एक सांस भरकर

दक्षिणी ध्रुव की मोहलत बढ़ा दी

भयभीत पहाड़

आंखें मलता बैठ गया

इत्मीनान से

चुपचाप बैठे पक्षियों में

शुरू हो गई चुहलबाज़ी

फूलों ने आसमान में उड़ती गौरैय्या को

बधाई दी

बादलों ने झुक-झुक कर किया

उसका अभिवादन

तितलियों ने चुपचाप मना लिया

रंगों का महोत्सव

केवल एक पेड़ रोप देने से

हुआ यह सब

केवल एक पेड़ रोप देने से

होता है यह कि आसमान

धीरे धीरे गुनगुनाने लगता है

कोई पहाड़ी धुन

जो सोलहसिंगी से स्वां तक

मेहराब सी फैलती चली जाती है

जिसे उतारता है बाद में शौंकू गद्दी

एक ऊॅंची रिड़ी से

हमारे दिलों तक

इस तरह आसमान उतरता है

एक नवजात शिशु सा

धरती की गोद में

हज़ारो हज़ार इंद्रधनुष

उतर आते हैं पत्तों में

हवा गाने लगती है ऋचाएं

हरियाली की खोज में निकला

वह कोलम्बस

इस तरह पहुंचा आखिर पेड़ तक

तुम सोचो

उस आदमी के पास होती

और एक टुकड़ा ज़मीन

तो ज़मीन और आदमी

दोनो बच जाते

टुकड़ा -2 होने से

(पर यह उस आदमी का सच नहीं है

जो खोज रहा है

एक टुकड़ा ज़मीन

एक और टुकड़ा पाने के लिए)

तुम सोचो कि धरती का एक तिनका सुख

सदियो तक सुरक्षित कर देता है

हमारे घोंसले

सदियों तक पेड़ गाते हैं

जीवन का समूह गान

चिड़िया चहचहाकर कह जाती है

हर सुबह हमारे कान में

कि धरती के बारे में की गई

तमाम डरावनी भविष्यवाणियां

कोरी अफवाहें हैं

कि जीवन रहेगा अभी यहां

और आने वाली पीढ़ियां

नहीं दबेंगी उन मकानों में

जिन्हें वे बना रही हैं

एक पेड़ से हो सकता है यह सब

वैसे ही जैसे

एक पेड़ के न होने से

हो सकता है

रूठ जाए यह हवा

गायब हो जाएं आसमान से बादल

मानचित्रों मे ही रह जाएं नदियां

हरियाली खोजें हम सपनों में

पेड़ के बारे मे सोचकर

डरें हम

जैसे दु:स्वपन से जागकर

डरते हैं बच्चे

पेड़ लगाता आदमी जानता है

कैसा होता है

पेड़ के बिना आदमी़

Tuesday, December 27, 2011

चित्रों में कुलदीप शर्मा

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कुलदीप शर्मा का जीवन परिचय

 

नाम :- कुलदीप शर्मा

पिता का नाम :-स्व़श्री भगत राम शर्मा

माता का नाम:- स्व़ श्रीमती दुर्गा देवी

जन्म :- 17 नवम्बर 1955 को ऊना जनपद के सुकड़ियाल गॉंव में।

शिक्षा:- प्राथमिक व दसवीं तक स्थानीय सरकारी स्कूल में6 तत्पश्चात डी़ए़वी. कॉलेज जालंधर से प्री इन्जिनियरिंग़ और फिर सिविल इंजिनियरिंग में डिप्लोमा़ ।

स्कूल के दिनों से ही भारतीय व पाश्चात्य साहित्य में गहन रूचि, क़विता लेखन की ओर स्कूली पढ़ाई के दौरान ही झुकाव़ अग्रज ईश्वर दु:खिया के सान्निध्य में दसवीं कक्षा में पहली कविता लिखी और सार्वजनिक पाठन किया.एक मध्यवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण उससे जुड़े तमाम भाव- अभाव बराबर छलते रह़े।

आधुनिक हिन्दी कविता में मुक्तिबोध, सर्वेश्वर, अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी व चंद्रकान्त देवताले मन को अधिक छूते हैं। उनके साहित्यिक दोस्तों में एक अग्निशेखर हैं। कुलदीप के अनुसार क़ुछ लोगों का मानना है कि अग्निशेखर की कविता में कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन के दर्द से उपजा अवसाद पाठक को बुरी तरह जकड़ लेता है, इस संदर्भ में प्रकारांतर से कुलदीप अपनी कहते हैं । कुलदीप मानते हैं कि अगर अग्निशेखर विस्थापन की पीड़ा न भोग रहे होते तो उनकी कविता कैसी होती? क्या वह फूलों तितलियों बर्फ और चिनारों की दुनयिां में अपनी कविताओं के विषय तलाशते ? एक कवि के दर्द का पैमाना आखिर होता क्या है ? कुलदीप इस प्रश्न का उत्तर पाठकों से माँगते हैं।

कुलदीप मानते हैं कि हिमाचल में लिखी जा रही हिन्दी कविता परिपक्व हो रही है. केशव, श्रीनिवास श्रीकान्त,रेखा,अवतार एनगिल, श्रीनिवास जोशी कुछ ऐसे नाम है जिन्होंने अपने समय की नब्ज़ को पहचाना और कविता में बड़ा काम किया़ आज भी कितने ही नए और युवा कवि हैं जो सक्रिय रूप से कविता की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान करवा रहे हैं ।